यह एक कहानी “वापसी अतीत की ओर” एक बेहतरीन शुरुआत है। मैं इसे उपन्यास जैसी भाषा, गहराई और प्रवाह के साथ विस्तार देकर कहानी के विचारों और भावनाओं को समृद्ध करना चाहूंगा।
कहानी के आठ भाग होंगे जिसमें आप चलेंगे दौड़ेंगे और बहेंगे शब्दों के साथ।(एक कालजयी प्रेमगाथा का प्रारंभ__दीपक पाण्डेय)
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दोपहर की झुलसाती रेत पर चलते हुए जब अनिमेष का पाँव सहसा ठिठक गया, तो उसे खुद भी नहीं पता था कि वह कहाँ जा रहा है और क्यों। शायद उसकी देह चल रही थी, लेकिन आत्मा… आत्मा तो उसी मोड़ पर लौट गई थी जहाँ एक पत्र ने उसकी चेतना को झंझोड़ डाला था।
विनीता का पत्र… वही अंतिम पत्र, जो उसकी स्मृतियों में अब शूल बनकर चुभता जा रहा था।
“अनिमेष, आओ न…एक सुकोमल पुकार
यहां सब कुछ बदल गया है। हवाओं में बारूद की गंध है।
मुझे डर लग रहा है। आतंकवादी हमारे आसपास हैं।
चलो, कहीं दूर चलें। साथ जिएँ… साथ मरें…!”
🫂
विनीता ने लिखा था। पुकारा था। विनती की थी। पर अनिमेष… वह तो जैसे पत्थर हो गया था।
वह क्यों नहीं गया?
क्या कोई विवशता थी?
या उसका अहं?
या फिर यह भ्रम कि समय अभी बाकी है?
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अब, जब सब कुछ खो गया है—विनीता, उसका संसार, वह नर्म मुस्कान जो किसी भी अंधेरे को रोशन कर सकती थी—किसी भी दीये में रौशनी भर सकती थी।
🤦
तब अनिमेष की आत्मा उसे झकझोर रही थी। एक अपराधबोध, एक पश्चाताप, एक अवसाद—जो अब उसकी सांसों का हिस्सा बन चुका था।
उसकी कल्पनाओं में विनीता बार-बार प्रकट होती। कभी घबराई सी, कभी मुस्कुराती हुई, तो कभी वह दृश्य जिसमें उसका रक्तरंजित चेहरा एक अंतिम दृष्टि से उसे देख रहा हो… वह दृष्टि जिसे अनिमेष जीवन भर नहीं भूल सकता।
🧏
उसकी आंखें डबडबा उठीं। सांस घुटने लगी।
वह बिस्तर पर लेटने गया, लेकिन मन की हलचल ने उसे वहाँ भी चैन नहीं लेने दिया।
वह उठा, खिड़की खोली। बाहर, जैसलमेर की धूलभरी हवाएं चल रही थीं।
और तभी—
एक अजीब अनुभूति हुई।
विचारों की धरातल पर मानो कोई आंधी चल पड़ी थी।
वर्तमान से रेत भर_भरा कर उड़ने लगी।
रेत के कण आसमान पर अंधकार की चादर बुनने लगे। वातावरण में रेत के गुबार उड़ने लगे।
धुंधली यादों की परतें उसकी आँखों से होकर उसकी आत्मा तक पहुँच रही थीं।
आंधी बदस्तुर जारी रही बल्कि और बढ़ती गई।
और वह…
देखने लगा रेतो के गुबार में एक अकल्पनीय मासूम चेहरा।
🕴️
बस क्या वह खड़ा था—निस्तब्ध, स्तब्ध, किंकर्तव्यविमूढ़।
लेकिन उसके बेजान कदम अब बढ़ने लगे तलाशने कुछ हकीकत और देखने आंधी की दिशा जो किधर से चली थी।
वर्तमान के रेत उड़ते जा रहे थे!
“शायद यह आंधी अतीत की ओर से चली थी…”
वह बुदबुदाया।
उसका अतीत, जो कभी धुंधला नहीं हुआ था…
बल्कि और स्पष्ट हो चला था इस रेतीले तूफान में।
हर उड़ती रेत की कणिका में उसे विनीता का चेहरा दिखने लगा।
हर धूल के झोंके में उसकी पुकार सुनाई देने लगी।
उसका मन सिहर उठा आत्मा चीत्कार कर उठी,
🤱🧑🍼
“काश… उस दिन मैं चला गया होता।”
तब न ये रेत होती,
न ये कोहरा,
न ये आत्मग्लानि।
वह लड़खड़ाए कदमों से अपने कमरे के कोने में गया, जहाँ विनीता की तस्वीर रखी थी। वह तस्वीर जिसे उसने वर्षों से छुआ तक नहीं था—जैसे खुद से मुँह मोड़ लिया हो।
🧑🌾
आज, पहली बार…
उसने तस्वीर को उठाया, सीने से लगाया और फूट-फूट कर रो पड़ा।
फिर न जाने किस शक्ति के वशीभूत,
वह चुपचाप उठा।
बेजान कदमों से चलता गया।
उस धूलभरे रास्ते पर,
जहाँ से उसकी आत्मा कभी लौटकर नहीं आई थी।
🌈🏜️
अब वह अतीत की ओर लौट रहा था…
सुनहरा अतीत प्यारा अतीत…
एक लंबी वापसी… खुद से मिलने की।
लेकिन उसके अंतर्मन में एक प्रश्न कौंध रहा था !सब लोग वर्तमान से भविष्य की ओर जाते है पर वह वर्तमान से अतीत की ओर क्यों बढ़ रहा है.?
क्या? हकीकत कहानी बन जाती है और जब कभी कहानी खत्म हो जाती है तो उसकी स्मृतियां भीतर अंतर मन में सुनहरी यादें बनकर चुपके से बैठ जाती है।
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अब वह अपने अतीत के किवाड़ खोल देता है एक मदमस्त शीतल ठंडी हवा का झोंका उसके बदन से टकराती है,
जो उसके वजूद में एक हल्की सिहरन पैदा करती है।
एक मखमली याद शुरू हो जाती है — जिसमें विनीता और अनिमेष की पहली मुलाकात, उनके संबंधों का गहराव, संघर्ष, बिछोह और आत्मदाह तक संवेदनशील यात्रा के साथ,जिसमें भरपूर दो दिलों की दास्तान थी। क्रमश:
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